भारत का चौथी अर्थव्यवस्था बनने का दावा उत्सव के बीच उठते बुनियादी सवाल, क्या सच में बदल रही आम भारतीय की जिंदगी?
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भारत की अर्थ व्यवस्था बनने की दावा या मायाजाल |
हाल ही में यह खबर सुर्खियों में रही कि भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, जापान को पीछे छोड़ते हुए। नीति आयोग के उपाध्यक्ष बीवीआर सुब्रमण्यम की इस घोषणा ने जहां एक ओर खुशी की लहर दौड़ाने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर गंभीर सवाल भी खड़े कर दिए। क्या यह वाकई जश्न का समय है, या फिर यह आंकड़ों का एक ऐसा मायाजाल है जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर है? वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने अपने एक विश्लेषण में इन्हीं सवालों को टटोलने की कोशिश की है, जिसकी गूंज आज हर आम भारतीय के मन में सुनाई दे रही है।
क्या वाकई भारत बन गया चौथी शक्ति? नीति आयोग के दावे पर उठे सवाल
सबसे पहला और बुनियादी सवाल तो यही है कि क्या भारत सचमुच चौथी अर्थव्यवस्था बन गया है? सीएनबीसी टीवी 18 की एक रिपोर्ट के अनुसार, नीति आयोग के उपाध्यक्ष की यह घोषणा "प्रीमेच्योर" यानी समय से पहले कर दी गई। रिपोर्ट बताती है कि 2025 के अनुमान जारी हुए हैं, लेकिन 2024 के आंकड़ों के अनुसार भारत जापान के बेहद करीब तो है, पर अभी आधिकारिक रूप से आगे नहीं निकला है। ऐसे में सवाल उठता है कि नीति आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्था से ऐसी चूक कैसे हुई? क्या यह महज एक गणितीय गलती थी या इसके पीछे कोई और मंशा? यदि यह गलती थी, तो इसका खंडन क्यों नहीं किया गया, जबकि यह खबर हर जगह छप चुकी है?
आंकड़ों की बाजीगरी और सरकारी लक्ष्य: हकीकत से कितनी दूर?
अर्थव्यवस्था के आकार को लेकर सरकारी बयानों में विरोधाभास कोई नई बात नहीं है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के बयानों का ही उदाहरण लें। कभी वे 2047 तक भारत को 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बताते हैं, तो कुछ ही महीनों में यह आंकड़ा 35 ट्रिलियन और फिर 55 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाता है। बाद में फिर इसे घटाकर 30-35 ट्रिलियन कर दिया जाता है। पिछले 10 सालों में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर जोड़े हैं। ऐसे में अगले 20-22 सालों में 30 से 50 ट्रिलियन डॉलर जोड़ने का दावा किस गणित पर आधारित है, यह समझना मुश्किल है।
आईएमएफ के 2024 के आंकड़ों को देखें तो अमेरिका लगभग 29 ट्रिलियन डॉलर और चीन लगभग 19 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ शीर्ष पर हैं। बाकी आठ देश, जिनमें जर्मनी, भारत, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा और ब्राजील शामिल हैं, 5 ट्रिलियन डॉलर से भी कम की अर्थव्यवस्था वाले हैं। इन आठों देशों की कुल जीडीपी भी अकेले अमेरिका की जीडीपी से कम है। ऐसे में, रैंकिंग में सुधार महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन जीडीपी के आकार का विशाल अंतर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
रैंकिंग का शोर और जीवनस्तर का सच: प्रति व्यक्ति आय और असमानता की खाई
रैंकिंग में आगे बढ़ना निःसंदेह एक उपलब्धि है, लेकिन क्या यह उपलब्धि आम आदमी के जीवन में कोई वास्तविक बदलाव ला रही है? हम ब्रिटेन, जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या हम उनके जीवन स्तर की बराबरी कर पा रहे हैं? क्या हमारे शहरों की तुलना उनके शहरों से की जा सकती है? क्या हमारी स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्थाएं उनके समकक्ष हैं?
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब देश चौथी अर्थव्यवस्था बनने के करीब पहुंच रहा था, तब आम भारतीय की जिंदगी कितनी बदल रही थी? क्या मध्यवर्ग समृद्ध हो रहा था या उसकी आर्थिक हालत सिकुड़ रही थी? क्या लोगों की सैलरी और बचत में वैसी वृद्धि हुई जो अर्थव्यवस्था की कथित तेज गति से मेल खाती हो? अर्थशास्त्री भी इस बात पर चिंता जताते हैं कि उत्सव के माहौल में इन बुनियादी सवालों को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए। यदि देश की 80 करोड़ आबादी को 5 किलो मुफ्त अनाज पर निर्भर रहना पड़ रहा है, तो हम अर्थव्यवस्था की इस "समृद्धि" को कैसे परिभाषित करेंगे? क्या यह "समृद्धि के पांच टापू असमानता के महासागर में" आगे बढ़ने जैसा नहीं है? प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में हम कहां खड़े हैं, इसका मूल्यांकन होना अधिक आवश्यक है।
जापान का सिकुड़ना, भारत का 'आगे बढ़ना'? अर्थव्यवस्था की बुनियादी चुनौतियाँ
यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है कि भारत का जापान से आगे निकलना (या निकलने की संभावना) जापान की अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने के कारण अधिक है, न कि भारत की असाधारण वृद्धि के कारण। जापान इस समय भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहा है, वहां मंदी की बात हो रही है और कर्जा जीडीपी का ढाई गुना हो गया है। यदि भारत 6 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी बनकर जापान को पीछे छोड़ता तो यह वाकई कमाल की बात होती। लेकिन जापान का 6 ट्रिलियन डॉलर से सिकुड़कर 4 ट्रिलियन डॉलर के आसपास आना और भारत का अपनी गति से आगे बढ़ना, सही मायने में "आगे निकलना" नहीं कहा जा सकता। ऐसा ही कुछ ब्रिटेन के साथ हुआ था जब ब्रेक्सिट और महंगाई के कारण उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई थी।
इस बीच, भारत की अपनी अर्थव्यवस्था भी चुनौतियों से जूझ रही है। रिजर्व बैंक ने भारत के जीडीपी का अनुमान 6.7% से घटाकर 6.5% कर दिया। फिच और मूडीज जैसी रेटिंग एजेंसियों ने भी अनुमान घटाए हैं। मांग घट रही है, और लोग खर्च कर सकें इसके लिए रिजर्व बैंक रेपो रेट कम करने पर विचार कर रहा है।
कर्ज में डूबे परिवार, माइक्रोफाइनेंस में संकट: विकास के दावों के बीच छिपी चिंताएँ
आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, जून 2024 तक भारत का घरेलू ऋण जीडीपी का 42.9% हो चुका है, जो मार्च 2023 में 37.6% था। इसका सीधा मतलब है कि भारतीय परिवारों पर कर्ज का बोझ तेजी से बढ़ा है। कंपनियां निवेश के लिए कम लोन ले रही हैं, जबकि आम लोग घर का खर्चा चलाने के लिए ज्यादा लोन ले रहे हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि सैलरी नहीं बढ़ रही और खर्चे पूरे नहीं हो रहे।
माइक्रोफाइनेंस सेक्टर, जो कम आय वर्ग के लोगों को छोटे लोन देता है, भी संकट में है। इस क्षेत्र में एनपीए (नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स) एक साल में लगभग दोगुना हो गया है, मार्च 2025 तक 8.8% से बढ़कर 16% (38,000 करोड़ से 61,000 करोड़ रुपये) हो गया। राज्य सरकारों को कानूनी हस्तक्षेप करके लोगों को लोन चुकाने के दबाव से बचाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, 2023-24 में देश के 11 पब्लिक सेक्टर बैंकों ने न्यूनतम बैलेंस न रखने वाले ग्राहकों से 2330 करोड़ रुपये का जुर्माना वसूला है।
आय की खाई: अमीर और अमीर, गरीब और...
वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आय की असमानता औपनिवेशिक दौर से भी बदतर है। यदि आपकी मासिक आय 25,000 रुपये है, तो आप भारत के शीर्ष 10% लोगों में शामिल हो सकते हैं। यह आंकड़ा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने मई 2022 में जारी किया था। इससे साफ है कि प्रति व्यक्ति आय में जमीन-आसमान का अंतर है। कंपनियों के मुनाफे की खबर भी इसी असमानता को दर्शाती है। जनवरी-मार्च तिमाही में 1555 कंपनियों का मुनाफा तो बढ़ा, लेकिन कमाई की रफ्तार धीमी हो गई। इस मुनाफे में भी 32.5% से अधिक हिस्सेदारी सिर्फ एक कंपनी (भारती एयरटेल) की है, और 76% हिस्सेदारी केवल पांच कंपनियों की। मतलब, चंद बड़ी कंपनियां और अमीर हो रही हैं, जबकि बाकी का प्रदर्शन औसत से भी कम है।
रोज़गार का संकट और गिग इकॉनमी का भविष्य: क्या यही है आत्मनिर्भर भारत का सपना?
उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली शीर्ष कंपनियां हिंदुस्तान यूनिलीवर और नेस्ले इंडिया ने भी मुनाफे में कमी देखी है, जिसका कारण बढ़ती लागत और शहरी मांग में कमी बताया जा रहा है। आईटी सेक्टर में भी बड़ी कंपनियों की कमाई में गिरावट आई है और अकेले अप्रैल महीने में 23,000 से अधिक लोगों को नौकरियों से निकाला गया है।
ऐसे में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का स्टैनफोर्ड में यह कहना कि 2030 तक भारत 2 करोड़ 30 लाख गिग वर्कर पैदा करेगा (जो अभी 70 लाख हैं), चिंताजनक है। गिग वर्कर यानी होम डिलीवरी या अस्थाई काम करने वाले, जिनकी कमाई कम और सामाजिक सुरक्षा नगण्य होती है। हॉटमेल के संस्थापक सबीर भाटिया ने भी इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह लॉन्ग टर्म रणनीति नहीं हो सकती, भारत को स्थिर और स्किल्ड नौकरियों की जरूरत है। इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकले युवाओं को कई सालों से शुरुआती तनख्वाह में कोई खास बढ़ोतरी नहीं मिली है।
शिक्षा और बुनियादी ढांचा: हम कहाँ खड़े हैं?
- इन आर्थिक बहसों के बीच यह भी सोचने का विषय है कि दुनिया की शीर्ष 50 यूनिवर्सिटी में जापान की दो यूनिवर्सिटी हैं
- जबकि भारत की एक भी नहीं। क्या हमने यह स्वीकार कर लिया है कि औसत दर्जे की शिक्षा ही हमारी नियति है?
- हमारे स्मार्ट सिटी का सपना कहां पहुंचा?
- अस्पतालों और शहरों का क्या हाल है? जो भारतीय विदेश (जर्मनी, अमेरिका, कनाडा) गए हैं
- उनसे पूछने पर वहां और यहां के जीवनस्तर का फर्क साफ पता चलता है।
निष्कर्ष: जश्न से पहले जायजा ज़रूरी
निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था की रैंकिंग में सुधार एक सकारात्मक संकेत हो सकता है, लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। जश्न मनाने से पहले यह जायजा लेना बेहद जरूरी है कि इस विकास का लाभ क्या सचमुच आम आदमी तक पहुंच रहा है? क्या लोगों का जीवन बेहतर हो रहा है? क्या आय की असमानता कम हो रही है? क्या युवाओं को स्थिर और सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है? जब तक इन सवालों के संतोषजनक जवाब नहीं मिलते, तब तक चौथी अर्थव्यवस्था बनने का दावा खोखला ही प्रतीत होगा। आंकड़ों के मायाजाल से बाहर निकलकर जमीनी हकीकत का सामना करना होगा, तभी सही मायनों में विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।